लॉकडाऊनमधले हुंकार
गेल्या तीन महिन्यांपासून
सारा देश लॉकडाऊनमध्ये बंदिस्त झाला आहे. हा बंदिवास आणि त्यामुळे होणारी गोरगरीबांची
होरपळ अनेकांनी कवितांमधूनही मांडली आहे. त्यातल्या या काही निवडक.
कुचला
कभी कूचों ने कुचला
कभी सड़कों ने कुचला
कभी शहरों ने कुचला
कभी नहरों ने कुचला ।
कभी धूप ने कुचला
कभी बरसात ने कुचला
कभी दिन ने कुचला
तो कभी रात ने कुचला ।
कभी नंगे घाव ने कुचला
कभी नंगे पाँव ने कुचला
कभी टूटी नाँव ने कुचला
कभी ठंडी छाँव ने कुचला ।
कभी लाचारी ने कुचला
कभी बीमारी ने कुचला
कभी महामारी ने कुचला
कभी मर्दुमशुमारी ने कुचला ।
कभी बस ने कुचला
कभी ट्रेन ने कुचला
कभी मालिक ने कुचला
कभी कोयले की कालिक ने कुचला ।
कभी रेत और खलियान ने कुचला
कभी ईंट और मकान ने कुचला
कभी ऊँची नीची चट्टान ने कुचला
कभी साहू के निपटान ने कुचला ।
कभी राज्य सरकार ने कुचला
कभी केंद्रीय सरकार ने कुचला
कभी दोनो के टकरार ने कुचला
कभी साँसो की दरकार ने कुचला ।
मज़दूर हूँ भाई छठी सबसे बड़ी
आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था की आस का
जहाँ की सरकार का नारा है
सबके साथ का और सबके विकास का ।
मज़दूर हूँ हिंदुस्तान का, जो पीढ़ी दर पीढ़ी
शहर दर शहर, हर चौराहे में, हर आदेश में,
हर छोटे, बड़े, चमचमाते विकसित देश में
आज भी अविकसित है अविकास है हर वेश में ।
जो आया बस उसने ही कुचला
यूँ लगता है कि मेरी हालत भी हुबहू
उस कोठे की तवायफ़ सी ठहरी
जिसका बदन गूँगा और क़िस्मत बहरी ।
नहीं शायद मुझसे से तो अच्छी है वो
कम से कम पेट की भूख ने तो नही कुचला
मुझे तो कमबख़्त उसने भी नहीं छोड़ा
जब चाहा जहाँ चाहा, दिल से कुचला ।
मज़दूर नहीं मेरा नाम होना चाहिए था कुचला
आज से मुझे पुकारो कुचला, कुचला , कुचला ।
- रवी कुमार
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मजदूर की व्यथा
तुम्हारे शहरों को आबाद करने
वहीं मिलेंगे गगन चुंबी इमारतों के नीचे
प्लास्टिक की तिरपाल से ढकी अपनी झुग्गियों में
चौराहों पर अपने औजारों के साथ
फैक्ट्रियों से निकलते काले धुंए जैसे
होटलों और ढाबों पर खाना बनाते, बर्तनो को धोते
हर गली हर नुक्कड़ पर फेरियों मे
रिक्शा खींचते आटो चलाते मंजिलों तक पहुंचाते
हर कहीं हम मिल जायेंगे
पानी पिलाते गन्ना पेरते
कपड़े धोते प्रेस करते
समोसा तलते पानीपूरी बेचते
ईंट भट्ठों पर
तेजाब से धोते जेवरात
पालिश करते स्टील के बर्तनों को
मुरादाबाद ब्रास के कारखानों से लेकर
फिरोजाबाद की चूड़ियों
पंजाब के खेतों से लेकर लोहामंडी गोबिंद ग
चायबगानों से लेकर जहाजरानी तक
मंडियों मे माल ढोते
हर जगह होंगे हम
बस इस बार
एक बार घर पहुंचा दो
घर पर बूढी मां है बाप है
सुनकर खबर वो परेशान हैं
बाट जोह रहे हैं काका काकी
मत रोको हमे जाने दो
आयेंगे फिर जिंदा रहे तो
नही तो अपनी मिट्टी मे समा जाने दो।
- राजेश श्रीवास्तव
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पायपीट!
हे चकचकीत रस्ते खायला उठलेत
वर ऊन तळपतंय चटके देत
डोकं तापलंय, मेंदू सडतोय आत
संसार छोटाच आहे कवेत मावेल एवढा
पण घर दूर फार दूर आहे हो खूप दूर....
पोरग रडून रडून थकून झोपलंय
पण पाय थकत नाहीत घराच्या ओढीनं
हे कसलं प्रारब्ध भोगतो आहे
जागतिकीकरणात....।
होय, माहीत नाही काय असतं ते जागतिकीकरण
पण आख्खं जग होरपळून जातंय या
कोरोनाग्रस्त भयाण रोगावर
आणखी किती चालायचं माहीत नाही
पण मागे मात्र पाहण्याची ताकद उरली नाही.
रस्ते चकाकतात, रात्री लाईटचा
भरभक्कम उजेड असतो
पण आमच्या डोळ्यात
अंधार मावत नाही
उंच इमारती मागेच सोडल्यात
पण निवारा कधी मिळाला नाही
खळगी भरण्यास आलो होतो
पण आज उपाशीच परत जातोय
घर वाट बघतंय... हो तेच घर
ज्याला कंटाळून इकडे आलो होतो
पायपीट करीत आणि आज परत जातोय
त्याच पोटाची खळगी भरायला
पायपीट करत जन्मलो त्याच भूमीत...
माणसाचा जन्म, माफ करा गरीब माणसाचा जन्म
एवढंच करणार!
पायपीट!
- दगडू लोमटे
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लॉकडाऊन आपल्याकडे तसा नवीनच. आणि कर्फ्यूही.. वर्षानुवर्षं
लॉकडाऊन आणि कर्फ्यू अनुभवणार्या काश्मिरी तरुणाने व्यक्त केलेली ही सह-अनुभूती.
कर्फ्यू है एहतियात से रहिएगा
पानी कम गिराइएगा, नमक कम खाईएगा ।
जाफरान की भी चाय बनाई जा सकती है
आटे में नमक डाल कर
पानी उबालकर भी रोटी खाई जा सकती है ।
चावल की पीछ मे छोंक से
एक वक्त की सालन चलाई जा सकती है ॥
दो कुन्बे एक चुल्हे पर खाना पकाए
साझी लकड़ी जलाएँ, साथ बैठ खाऐ ॥
ऐसे करके बरकत रहती है
चावल की पिपि, तेल की कुप्पी
ज़्यादा दिन चलती है ॥
माँ जी की दवाई ख़त्म हो तो
पानी में हल्दी घोलने से आराम आएगा ।
अब्बा जी को गुनगुना घी गुटनो में लगाइएगा ॥
बच्ची गूमने की ज़िद करें तो
बॉलकनी में कंधे पर घुमा आइएगा ॥
खिडकी में से पड़ोसी से बात करते रहना ।
कुछ कमदिल होते है, दिलासे देते रहना ।
उधार लेने देने में शरम नहीं है,
देहशत के बाद अमन में लौटाते रहना ।
किसी नाके पर पुलिस पुछे तो
हाँ जी, ना जी में कहना ।
आधार, वोटर, लेसंस खीसें में रखना ।
और कई बातें हैं जो तुमे सिखानी है
कुछ दिन की बात है,
आपको कौन सा हमारी तरह
कर्फ्यू में ऊमर बितानी है..
(कवींच्या भावना वाचकांपर्यंत पोहोचाव्यात एवढ्याच हेतूने
सोशल मिडियावरील कवितांचं संकलन केलं आहे.
हिंदी कवितांचे कवी तेच आहेत ना हे
तपासून घेण्याचा
प्रयत्न केला आहे. पण तरीही चूकभूल क्षमस्व.)
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